जिसके इंतज़ार में
रूह-अफ़ज़ा की तमाम बोतलें कुर्बां हुई,
उन बारिशों की रुख़सती के आसार लगते हैं।
वो साल में बस एक ही बार
कुछ रोज़ के लिए आने वाली
दूर गाँव की बुआ की तरह है,
गुस्सा तो जैसे नाक पे ही धरा हो।
हर बात पे गरजतीं
लेकिन वापसी में हमेशा
तोहफे तमाम छोड़ जातीं।
–
वो खेतों के लिए सब्ज़ चादर लायी थीं
जिनमे अब मुलायम भुट्टे लगे हैं।
बच्चे-बूढ़े ही क्या,
अब भैंसे भी खुश नज़र आती है,
वो तालाब जो लबालब कर गयीं।
मदरसे के पीछे वाली बंजर ज़मीन पर
जहाँ गूजरी गोबर के उपले सुखाती थीं,
वहाँ फिर से बेर के झाड़ सर उठाने लगे।
बुआ कहा करती थीं
की इन्हें ज़्यादा ख़ाओगे
तो दिन भर लोटा लिए यहीं बैठे मिलोगे,
शायद इसीलिए काँटों के बीच
सहेज गयी होंगी
वो सारे खट्टे-मीठे सुर्ख़ बेर।
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दादी ने जो खड़ी और गेरूं से
आँगन की लिपाई की थी परसों,
सौंधी महकती धरती की छाती से वहाँ,
औंधे पड़े लिपटे रहना
अब मेरा नवाबी शौक़ है।
बैसाख में उगी घास अब ज़र्द सी हो चली
मग़र ख़ैर है,
अनवर की कम्बख्त बकरियाँ
मेरे बागीचे में नाश्ता करने
जबरस्ती नहीं घुस आतीं।
–
अपने खेतों की उड़द बेच
शहर से लौटा कह्नैया
अब पूरी फ़ुर्सत से है।
जो देसी पिए कुएं के पास पड़ा मिलता,
अब दूसरे पहर तक गुलाबी धूप में,
अंग्रेजी बोतल बग़ल में धरे
मसनद-ए-खाट पे आराम फरमाता है।
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छोटी-छोटी गोभी सी गांठे
दिखने लगी हैं ग़ुल-ए-दाऊदी पर
ख़िलने में काफी वक़्त है लेकिन
बेसब्र तितलियाँ अभी से मंडराने लगीं,
जिनका पीछा करती
पड़ौस वाली शारदा चाची की मुनिया
मुंडेर फांद आयी थीं,
मेहराब के सहारे चौखट पे बैठी
हांफती सी पूछती है,
ये बारिश रोज़ क्यों नहीं आती?
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