मज़दूर

बस एक ही रेलगाड़ी रूकती है
गाँव और शमशान
के बीचों-बीच बने
एक टेशन पर।
इधर गाड़ी छूटी
उधर शमशान की तरफ
जाने वाली फाटक
खुली।
उसने चार रोटी
थोड़ा नमक
एक गुदड़ी को
अपनी माँ की पुरानी
ओढ़नी में लपेटा
और अपनी बीवी
के सर पर हाथ रख
क़सम खायी
की जब हमारा बच्चा
तेरे पेट से बहार आएगा
भरपेट खाना
और एक दमकती साड़ी लेकर
मैं शहर से लौट आऊंगा।


सूरज डूबने ही वाला था
रेलगाड़ी आयी
वो लपका
इंजन चीखा
और शहर की तरफ दौड़ा
जहाँ कभी रात नहीं होती
और हो भी
तो कोई सोता नहीं।


भोर हुई
शहर जान पड़ता है
धुंआ उगलती चिमनियां
काले पानी के नाले
नालों के पास झुग्गी
झुग्गी के पीछे
सीना ताने खड़ी
ऊँची ऊँची इमारतें
इमारतों के पीछे
धुँधला सा
वही पुराना सूरज।
शहर के
आलीशान टेशन
पर उतरते ही
कलेजा दांतो में दबाये
वो भीड़ में खो गया।


तिरपाल और बल्लियों
के सहारे टिकी
झुग्गी का किराया
पांच हज़ार।
पेट पर कपड़ा बांध
वो दफ्तरों तक
खाने के डिब्बे पहुंचाता रहा।
पौ फटते निकलता
टिन के दरवाजे
पर ताला लगा कर
किसी बंगले में
चीनी मिट्टी का
चिकना ग़ुसलख़ाना बनाने।
सीमेंट का बोरा
लेकर ऊँची ईमारतों
पर चढ़ा
तो पता चला
शहर बस यहीं से
सुन्दर नज़र आता है।
जन-कल्याण योजना का
पोस्टर चिपकाते
उसे याद आया
गाँव को मनी-ऑर्डर
भेजना भूल गया
शिफ्ट ख़तम होती
तो सपनों को लादे
वो उदास सा
नीचे उतर जाता।


उस रोज़
शहर में सूरज तो निकला
लेकिन ना दफ्तर खुला
ना डाक-खाना
चिमनियों ने धुंआ उगलना
बंद कर दिया
फैक्ट्री भी बंद
बनिये की दुकान भी बंद
ठेकेदार के घर का
दरवाजा भी।
नेता जी कहिन
रेलगाड़ी अब जाये की तब जाये
टेशन भी तो बंद।


शहर डूबते सूरज के छोर पे है
गाँव पूरब की और
सड़क पे चला तो
दारोग़ा का डंडा मिला।
वो चल पड़ा
पटरियों पर
ये उसे गाँव तक
पहुंचा देंगी शायद।
सर पे गुदड़ी का ताज
पैरों में बिवाई के जूते
हाथ में थैली
थैली में
वही चार रोटी।


जब वो चला था
तब सूरज
आँखों में था
फिर सर पर भभका
अब साथ छोड़ कर
भाग रहा है उल्टा।
माथे से पसीना
जब टपकता पटरियों पर
तो बादल बन कर
बरस उठता कहीं दूर
किसी खेत में।


साँझ होते-होते
पैरों ने जवाब दे दिया
बोले की अँधेरे में
कोई रास्ता नहीं सूझता।
दूर शहर की जगमगाती
बत्तियों के बीच
सैंकड़ो परछाइयां
पीछा कर रही थी
उनको भी
अपने गाँव जाना होगा
शायद।
"थोड़ा सुस्ता लो बाबू"
"कल भी तो चलना है"
किसी ने आवाज़ दी।
पटरियों के अगल-बगल
तारबंदी है
कीड़े-कांटे का डर भी।


लोहे की पटरी
पटरी का सिरहाना
सिरहने पड़ी रोटी
रोटी पे चमकती चांदनी
चांदनी की थपकी और
पुरवाइयों की लौरी
सुनते सुनते
नींद का ऐसा झोंका आया
की कब रात गुजरी
और कब रेलगाड़ी
किसी को पता नहीं।


अगले दिन
छपा तो था
लेकिन गाँव में
अख़बार कहाँ आता है।

-O-

Exhausted Migrants Fell Asleep On Tracks. 16 Run Over By Train

Maharashtra: The police said the migrants, who were headed to Madhya Pradesh, likely assumed that trains were not running due to the coronavirus lockdown and slept off on the tracks.

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Source : NDTV

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